हर 18वें मिनट में दलित उत्पीड़न की घटना होती है.
रोज तीन दलित महिलाओं के साथ बलात्कार होता है.
दो दलितों की हत्या होती है.
दो दलितों के घर जला दिए जाते हैं.
11 दलितों के साथ मारपीट की घटना होती है.
हर हफ्ते 13 दलितों की हत्या होती है.
पांच दलितों के घर फूंक दिए जाते हैं.
6 दलितों का अपहरण होता है.
दलितों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति
37 फीसदी दलित गरीबी रेखा से नीचे अपना जीवन गुजार रहे हैं.
54 फीसदी दलित बच्चे कुपोषण के शिकार हैं.
दलित परिवार में जन्म लेने वाले एक हजार बच्चों में से 83 बच्चे एक साल की उम्र के पहले ही मर जाते हैं.
दलित आबादी का 45 फीसदी हिस्सा पढ़ना और लिखना नहीं जानते हैं.
दलित महिलाओं को लिंग और जाति के आधार पर दो उत्पीड़न से गुजरना पड़ता है.
सिर्फ 27 फीसदी दलित गर्भवती महिलाओं को अस्पताल की सुविधा मिल पाती है.
अपने मकान वाले एक तिहाई दलितों को बुनियादी सुविधाएं नहीं है.
आज भी 33 फीसदी गांवों में सरकारी स्वास्थ्यकर्मी दलितों के घर जाने से इंकार कर देते हैं.
27.6 फीसदी गांवों में दलितों को आज भी पुलिस थाने में घुसने से रोक दिया जाता है.
37.8 फीसदी सरकारी स्कूलों में दलित बच्चों को आज भी दोपहर के भोजन के दौरान अलग बैठाया जाता है.
23.5 फीसदी गांवों में दलितों को आज भी उनके घरों पर चिठ्ठी नहीं पहुंचाई जाती.
तकरीबन 50 फीसदी (48.4) गांवों में आज भी दलितों को सार्वजनिक जल स्रोतो से पानी लेने से रोका जाता है.
दलित समुदाय में जन्म लेने वाले पचास फीसदी बच्चे कुपोषित होते हैं. 100 में 21 बच्चे (50 फीसदी) कम वजन वाले पैदा होते हैं.
जबकि सौ में 12 बच्चे पांचवां साल पूरा करने से पहले मर जाते हैं.
दलितों की कुल आबादी के 80 फीसदी (79.8) लोग गांव में रहते हैं.
ग्रामीण क्षेत्रों में दलित महिलाओं की साक्षरता दर 37.8 फीसदी है.
चौंकाने वाली बात यह है कि एससी/एसटी अत्याचार अधिनियम के तहत दर्ज मुकदमों में महज 15.71 फीसदी में ही सजा हो पाती है. जबकि 85.37 फीसदी मामले लंबित हैं. इसके विपरीत्त आईपीसी की धारा के तहत दर्ज मामलों में 40 फीसदी अधिक में कार्रवाई होती है.
(source: National Human Rights Commission Report on the Prevention and Atrocities against Scheduled Castes)
नोटः ये वो आंकड़े हैं, जो उपलब्ध हैं और सरकारी कागजों में दर्ज होते हैं. शायद इससे ज्यादा मुकदमें दर्ज नहीं हो पातें.
रोज तीन दलित महिलाओं के साथ बलात्कार होता है.
दो दलितों की हत्या होती है.
दो दलितों के घर जला दिए जाते हैं.
11 दलितों के साथ मारपीट की घटना होती है.
हर हफ्ते 13 दलितों की हत्या होती है.
पांच दलितों के घर फूंक दिए जाते हैं.
6 दलितों का अपहरण होता है.
दलितों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति
37 फीसदी दलित गरीबी रेखा से नीचे अपना जीवन गुजार रहे हैं.
54 फीसदी दलित बच्चे कुपोषण के शिकार हैं.
दलित परिवार में जन्म लेने वाले एक हजार बच्चों में से 83 बच्चे एक साल की उम्र के पहले ही मर जाते हैं.
दलित आबादी का 45 फीसदी हिस्सा पढ़ना और लिखना नहीं जानते हैं.
दलित महिलाओं को लिंग और जाति के आधार पर दो उत्पीड़न से गुजरना पड़ता है.
सिर्फ 27 फीसदी दलित गर्भवती महिलाओं को अस्पताल की सुविधा मिल पाती है.
अपने मकान वाले एक तिहाई दलितों को बुनियादी सुविधाएं नहीं है.
आज भी 33 फीसदी गांवों में सरकारी स्वास्थ्यकर्मी दलितों के घर जाने से इंकार कर देते हैं.
27.6 फीसदी गांवों में दलितों को आज भी पुलिस थाने में घुसने से रोक दिया जाता है.
37.8 फीसदी सरकारी स्कूलों में दलित बच्चों को आज भी दोपहर के भोजन के दौरान अलग बैठाया जाता है.
23.5 फीसदी गांवों में दलितों को आज भी उनके घरों पर चिठ्ठी नहीं पहुंचाई जाती.
तकरीबन 50 फीसदी (48.4) गांवों में आज भी दलितों को सार्वजनिक जल स्रोतो से पानी लेने से रोका जाता है.
दलित समुदाय में जन्म लेने वाले पचास फीसदी बच्चे कुपोषित होते हैं. 100 में 21 बच्चे (50 फीसदी) कम वजन वाले पैदा होते हैं.
जबकि सौ में 12 बच्चे पांचवां साल पूरा करने से पहले मर जाते हैं.
दलितों की कुल आबादी के 80 फीसदी (79.8) लोग गांव में रहते हैं.
ग्रामीण क्षेत्रों में दलित महिलाओं की साक्षरता दर 37.8 फीसदी है.
चौंकाने वाली बात यह है कि एससी/एसटी अत्याचार अधिनियम के तहत दर्ज मुकदमों में महज 15.71 फीसदी में ही सजा हो पाती है. जबकि 85.37 फीसदी मामले लंबित हैं. इसके विपरीत्त आईपीसी की धारा के तहत दर्ज मामलों में 40 फीसदी अधिक में कार्रवाई होती है.
(source: National Human Rights Commission Report on the Prevention and Atrocities against Scheduled Castes)
नोटः ये वो आंकड़े हैं, जो उपलब्ध हैं और सरकारी कागजों में दर्ज होते हैं. शायद इससे ज्यादा मुकदमें दर्ज नहीं हो पातें.
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