Monday, October 17, 2011

'भारतीयों की भाषा बदल दो तो धर्म, संस्कृति, देश और अपने लोगों के प्रति उनकी आस्था खुद-ब-खुद बदल जाएगी।''

'भारतीयों की भाषा बदल दो तो धर्म, संस्कृति, देश और अपने लोगों के प्रति उनकी आस्था खुद-ब-खुद बदल जाएगी।''

711 ईस्वी में मोहम्मद बिन कासिम ने सिंध पर कब्जा कर लिया था। 200 साल अंग्रेजों के शासन सहित भारतीय लोग करीब पूर्ण रूप से 700 से ज्यादा वर्ष तक विदेशी गुलामी में जीते रहे। कुल गुलामी का काल 1236 वर्ष रहा, जिसमें आजादी के बाद के 64 वर्ष भी जोड़ दिए जाए तो कुल 1300 साल से हम गुलाम है। हम पर यूनानी, मंगोल, ईरानी, इराकी, पुर्तगाली, फ्रांसीसी, मुगल और अंग्रेज ने राज किया है। उनके शासन तले हम हिंदू से पहले मुसलमान बने, ईसाई बने, फिर कम्युनिस्ट बने और पिछले 64 साल की तथाकथित आजादी के चलते अब हम न जाने क्या-क्या बनते जा रहे हैं। पुरे मुल्क को 'अपनों के खिलाफ अपनों का मुल्क' बना दिया गया। आखिर क्यों और कैसे?

327 ईपू सिकंदर ने भारत पर आक्रमण किया और सिंधु नदी के आसपास के क्षेत्र के राजाओं को उसकी अधीनता स्वीकारना पड़ी, लेकिन मगध की विशाल सेना के सामने उसकी सेना ने युद्ध से इनकार कर दिया था और उसे भारत भूमि छोड़कर बेबीलोन जाना पड़ा। इसके बाद मोहम्मद-बिन-कासिम के आक्रमण ने भारतीयों को झकझोर दिया। इससे पहले इस्लामिक सेनाएं खलीफा उमर के नेतृत्व में सन 644 में सिंध पहुंची और उन्होंने हिंदुओं को मुसलमान बनाने की मुहिम के तहत बलूचिस्तान से सिंध तक युद्ध के माध्यम से इस्लामीकरण किया। इसके बाद 712 में मुकम्मल तौर से मोहम्मद-बिन-कासिम ने इस पूरे क्षेत्र पर कब्जा कर इसे इस्लामिक राज्य बना डाला।

मोहम्मद-बिन-कासिम के राज्य की सीमाओं में इस्लाम के प्रवेश के पहले बौद्ध एवं हिंदू धर्म भारतीय उपमहाद्वीप के प्रमुख धर्म थे। मध्य एशिया और आज के पाकिस्तान एवं अफगानिस्तान में बौद्ध धर्म शताब्दियों से फल-फूल रहा था, लेकिन लगातार आक्रमण और धर्मांतरण से यह पूरा इलाका युद्धग्रस्त होकर अखंड भारत से अलग हो गया।

अरब मुस्लिमों एवं बाद के मुस्लिम शासकों के काबुल, सिंध एवं पंजाब में आने से दक्षिण एशिया में राजनैतिक रूप से बहुत बड़ा परिवर्तन आया और जिसने आज के अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान को भारत से अलग कर दिया। वे लोग जो ‍मुसलमान बन गए थे और वे लोग जो नहीं बने थे, उनके बीच लगातार वर्षों तक 'अपनों के खिलाफ अपनों का युद्ध' चलता रहा। इसके बाद आए अंग्रेज।

भारत में ब्रिटेन का दो तरह से राज था- पहला कंपनी का राज और दूसरा 'ताज' का राज। 1857 से शुरू हुआ ताज का राज 1947 में खत्म हो गया, लेकिन 1857 से पूर्व 1757-58 से आज तक कंपनी का अप्रत्यक्ष रूप से राज जारी है। कंपनी के माध्यम से ही अप्रत्यक्ष रूप से ताज भी कायम है। वे सोचते हैं, प्लान करते हैं और फिर राज करने के लिए आगे बढ़ते हैं। हम सिर्फ उनके सोचने की तारीफ करते हैं और उनके प्लान की तारीफों के पुल बांधते हैं।

उन्होंने हमें तकनीक दी और हमसे हमारा ज्ञान, विज्ञान, दर्शन, रहस्य और शांति छीन ली। इसके बल पर उन्होंने उनकी भाषा, धर्म और संस्कृति के अनुसार विज्ञान और तकनीक विकसित की, फिर हमने उनकी तकनीक अनुसार अपनी भाषा को ढाला, धर्म को ललकारा और संस्कृति को हाशिए पर टांग दिया।

'वो' अपनी थिंक मीटिंग में अपने प्रचारकों से कहते रहे होंगे, आप पहले भाषा का प्रचार-प्रसार करो तो अंग्रेजीयत वे खुद-ब-खुद सीख लेंगे, फिर थोड़ी बहुत हम सिखा देंगे उनकी संस्कृति की आलोचना किए बगैर। जहां तक आलोचना का सवाल है तो वे 'मूर्ख ब्राउन' यह काम खुद-ब-खुद कर ही लेंगे। हमें उनसे उनकी भाषा छीनना है तभी वे अपने इतिहास, संस्कृति और धर्म को खो बैठेंगे।

हां, अब अंग्रेजीयत में जरूरी है वेश-भूषा बदलना, इसके लिए उनके पहनावें की आलोचना करने के बजाय अपने पहनावे की तारीफ करो और वे मूर्ख ब्रॉउन खुद ही कहेंगे कि हमारा पहनावा गैर-आधुनिक है। जबकि उनका पहनावा परंपरागत व प्राचीन होने के बावजूद आधुनिक कैसे हुआ? यह सवाल पिछले 200 सालों में किसी भारतीय ने उनसे पूछने की जुर्रत नहीं की। वे अब हमें जींस पहनाते हैं, क्योंकि वहां के 'काऊ बाय और गे' ऐसा करते हैं हम उनके लिए इससे ज्यादा कुछ नहीं।

विवेकानंद ने कहीं पर कहा था, 'जो कौम अपना इतिहास नहीं जानती वे अपना अस्तिव खो बैठती हैं।' भारतीयों में इसीलिए तो गर्व और गौरव का बोध नहीं है, क्योंकि उन्हें भारतीय इतिहास से ज्यादा अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोप में क्या चल रहा है इसकी ज्यादा ‍चिंता होती है, क्योंकि वे उसका बखान करके स्वयं को अपने ही लोगों से आगे और सर्वश्रेष्ठ घोषित करना चाहते हैं।

ये मूर्ख ब्रॉउन स्वयं को अमेरिकी या ब्रिटिश रिटर्न कहते हैं, जबकि कोई अमेरिकी या ब्रिटिश भारतीय रिटर्न नहीं कहलाना चाहता। जब अंग्रेजी अखबार में छपता है 'ब्लडी इंडियन' तो सारे ब्लडी खुश हो जाते हैं, क्योंकि पिछले 1300 सालों में इनकी विरोध करने की शक्ति उन्होंने छीन ली है। इस देश में 1300 साल से कोई क्रांति नहीं हुई।..क्या इससे पहले कोई क्रांति हुई थी?

'वो' कहते हैं कि पहले इन भारतीयों को अपने इतिहास से काट दो। हम भारतीय इतिहास के बारे में उतना ही जानते हैं जितना कि हमें पुराने और नए सत्ताधीशों द्वारा बताया गया है, समझाया गया है अब ऐसा समय आ गया है कि हम उसे ही सच समझने लगे हैं क्योंकि वाद-विवाद की कोई गुंजाइश ही नहीं छोड़ी गई। जहां कहीं हमारे असली भारतीय! भाई इसे समझाने का प्रयास करते हैं तो उनके खिलाफ यूनिवर्सिटी के तथाकथित रट्टू प्रोफेसर खड़े हो जाते हैं और उन पर सांप्रदायिक या फासीवादी होने का आरोप मढ़ने लगते हैं।....किसी ने मेरे कान में कहा 'भारतीय मीडिया।' न मालूम यह किस ब्रिटिश चिड़िया का नाम है या कहीं यह ईगल तो नहीं?

ऐसे पिलाया भाषा का प्याला :
खैर, इन सात सौ सालों में ऐसा नहीं है कि पहले हमें जाति, धर्म, प्रांत, छूआछुत आदि के नाम पर बांटा गया। दअसल मुस्लिम काल में पहले हममें जातियां पैदा की गई और फिर हमें हमारी जात और औकात बताई गई तब फिर बांटा गया। 'फूट डालो और राज करो' का नारा बहुत पुराना है। भारतीयों (मुसलमान और हिंदू दोनों) के ज्यादातर उपनामों पर नजर डालें, वे सारे नाम उपनाम मुस्लिम आक्रांताओं और अंग्रेजों द्वारा गढ़े गए हैं।

फूट डालने के बाद धीरे-धीरे स्वदेशी व्यक्ति को बनाया गया विदेशी। सोची-समझी रणनीति के तहत भारतीय नागरिकों के दिमाग से सबसे पहले इतिहास को विस्मृ‍त किया गया, धर्म और संस्कृति को कुतर्क से भ्रमित और दकियानूसी साबित कर आधुनिकता के नाम पर अंग्रेजीयत को परोसा गया। यदि आप अपनी भाषा से कटते हैं तो संस्कृति, धर्म और इतिहास से भी स्वत: ही कटते जाते हैं‍ फिर किसी दूसरे की भाषा से जुड़ते हैं तो भाषा के साथ ही उनके धर्म और संस्कृति से भी जुड़ते जाते हैं। है ना कमाल की बात।

अंग्रेज काल में जब कोई व्यक्ति विलायत से पढ़-लिखकर आता था तो सबसे पहले वह अपने देश को गंदा और गंदे लोगों का देश कहता था, वह उन लोगों से कम ही बात करता था जो उसके नाते-रिश्तेदार होते थे या जो गरीब नजर आते थे। अंग्रेजी में बतियाते हुए वह स्वयं को सर्वश्रेष्ठ घोषित करने की जुगत के चलते जाने-अनजाने अपनी भाषा, संस्कृति और धर्म के दो चार मीनमेख निकालकर विदेश की बढ़ाई करने से नहीं चूकता था। आज भी यही होता है, क्योंकि आदमी तो वही है- ब्रॉउन मैन।

अंग्रेज काल से ही यह परिपाटी चली आ रही थी जो आज 2011 में सब कुछ अंग्रेजी और अंग्रेजमय कर गई। अब हिंदी, हिंदी जैसी नहीं रही, तमिल भी बदल गई है, बंगाली, गुजराती और मराठी भी ठगी सी खड़ी हैं। सभी भारतीय भाषाओं में अंग्रेजी ठूंस दी गई है और अंग्रेजी तो पहले की अपेक्षा और समृद्ध हो चली है। इस बात का विरोध करो तो अब हमारे ही लोग हमें अंग्रेजी के पक्ष में तर्क देते हैं।

अंग्रेज जानते थे कि हम इन भारतीयों से कब तक लड़ेंगे और कब तक इन्हें तर्क देते रहेंगे इसीलिए उन्होंने हमारे बीच ही हमारे खिलाफ हमारे लोग खड़े कर दिए। अब वे चाहते हैं कि भारतीय भाषा को रोमन में लिखा जाए। इसकी भी शुरुआत हो चुकी है।

उन्होंने हमें अंग्रेजी बहुत ही आसानी से सिखा दी। नीति के तहत कहा गया की अंग्रेजी को ग्रामर के साथ मत सिखाओ। अंग्रेजी से ज्यादा अंग्रेजी मानसिकता बनाओ। तहजीब की बातें, उपेक्षा, उलाहना, मौसम, खान-पान, कपड़े, चित्र और गरीबी आदि के साथ अंग्रेजी सिखाओ। 2011 आते-आते हम अब खुद अंग्रेजी सीख रहे हैं ग्रामर के साथ भी। अब हमसे हमारी ही कंपनियां पूछती हैं आपको कौन-सी अंग्रेजी याद है अमेरिकन या ब्रिटिश। सच मानो अब हमारी मानसिकता कितनी भारतीय बची है इस पर शोध करना होगा।

क्या ये शब्द हिंदी के हैं?- वेकअप सिड, जब वी मैट, वेलकम टू सज्जनपुर, थ्री इडिएट्स, गॉड तुसी ग्रेट हो, रेडी, रॉ वन, प्रॉब्लम, मीडिया, बॉलीवुड, फोर्स, मोबाइल, डिसमिस, ब्रैड, अंडरस्टैंडिंग, मार्केट, शर्ट, शॉपिंग, मॉल, स्टेडियम, कॉरिडोर, ब्रेकफास्ट, ट्रेन, लंच, डिनर, लेट, वाइफ, हस्बैंड, सिस्टर, फादर, मदर, फेस, माउथ, गॉड, कोर्ट, लैटर, मिल्क, शुगर टी, सर्वेंट, थैंक यू, डैथ, एक्सपायर, बर्थ, हैड, हेयर, वॉक, बुक, एक्सरसाइज, चेयर, टेबिल, हाउस, सॉरी, सी यू अगेन, यूज, थ्रो, आउट, गुडमॉर्निंग सर, गुड नाइट, हैलो, डिस्टर्ब, सडनली, ऑबियसली, येस, नो, करंट अफेयर, लव, सेक्स, यूथ ब्रिगेड, रैडी और बॉडी गॉड आदि हजारों। अब हिंदी बची कहां? आज का युवा आधे से ज्यादा अंग्रेजी के शब्द ही बोलता है।

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