Friday, June 15, 2018

अस्पर्शयता : सामाजिक यथार्थ या औपनिवेशिक षड्यंत्र

अस्पर्शयता : सामाजिक यथार्थ या औपनिवेशिक षड्यंत्र

जातीय अस्पृश्यता पर वर्षों से वामपंथी लेखकों का एकाधिकार बना रहा है उन्होंने जैसा परोसा उसी को सच माना गया। जैसे  5000 वर्ष से जातीय अस्पृश्यता और ब्राह्मणों द्वारा उत्पीड़न किया गया, ब्राह्मण बाहर से आए हैं, अस्पृश्य, आदिवासी, पिछड़े और अब मुसलमान भी भारत के मूल निवासी हैं, ऐसा झूठ वामपंथी लेखकों द्वारा समय समय पर लिखा जाता रहा है। जिससे समाज में दुर्भावना ने जन्म ले लिया है।  

वैदिक वर्ण व्यवस्था में समाज को चार वर्णों में बांटा गया ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र यह वर्गीकरण कर्म आधारित था जन्म आधारित नहीं। इस वर्ण व्यवस्था में जो जिस कार्य को चुनता वह कार्य उसकी पहचान के रूप में जाना जाता जिसमें कहीं अस्पृश्यता का भाव नहीं था।

भारत का कपड़ा उद्योग जिसमें ढाका का मलमल एक माचिस की डिब्बी में पूरा थान आ जाता था, मखमल जो एक अंगूठी में से पूरा थान आर पार निकल जाता था, यहां का रेशम उद्योग, मिस्र के पिरामिडों में शवों पर कफन के रूप में इस्तेमाल किया गया रेशम सोने से भी ज्यादा महंगा होता था भारत से जाता था, मिस्र के शवों पर लेपित किया गया मसाला वह भी भारत से जाता था। चमड़ा उद्योग लोह उद्योग इसमें काम करने वाले आपस में भाईचारगी से रहते थे कारोबार करते थे निर्यात करते थे दुनिया में सोने की चिड़िया के रूप में भारत को यहां के उद्योग धंधों के कारण जिसमें समाज का प्रत्येक वर्ग अपना योगदान देता था जाना जाता था।

यह हम अच्छी तरह जानते हैं 0ईस्वी से 1750 ईस्वी तक भारत की जीडीपी 25 से 30% होती थी अर्थात हम वस्तु निर्माण व निर्यात में अव्वल थे भारत का रेशम, मसाले, कपड़ा, चमड़ा उत्पाद आदि दुनिया में बेहद मशहूर थे और इस्तेमाल किए जाते थे, यही कारण था की दुनिया के बड़े मुल्क भारत व्यापार के उद्देश्य से एवं विदेशी लुटेरे भारत को लूटने के उद्देश्य से यहां आते रहे।

1750 के बाद अंग्रेजों ने यहां के उद्योगों को बंद करने के षड्यंत्र शुरू किए, परिणाम स्वरुप सोने की चिड़िया पिंजरे में बंद हुई। यहां की गुरुकुल परंपरा को तत्कालीन शिक्षा मंत्री मैकाले ने फरवरी 1835 में आधुनिक शिक्षा व्यवस्था लागू कर ध्वस्त किया।

यहां के व्यापार, उद्योग, खेती, शिक्षा, हथकरघे तमाम व्यवस्थाओं को ध्वस्त करने के पश्चात अंग्रेजों ने यहां की वर्ण व्यवस्था सामाजिक रहन सहन उस पर अपनी जहरीली निगाह डालनी शुरू की। 1857 अंग्रेजो के खिलाफ पहली आजादी की लड़ाई हिंदुस्तान के सभी वर्गों ने सभी जातियों ने मिलकर लड़ी जिससे अंग्रेज तड़प उठे और उन्होंने योजना बनाई समाज को विखंडित करने की।

धर्म व जातीय आधार पर वर्गीकरण का षड्यंत्र

जिसकी कड़ी में अंग्रेजों ने भारत में पहली बार आम जनगणना 1881 में कराई जनसंख्या रिपोर्ट में भारत की कुल जनगणना के लिए यहां की विभिन्न जातियों और प्रजातियों की सूची बनाने और उनका कुल योग करने के अतिरिक्त कुछ नहीं किया गया इस रिपोर्ट में विभिन्न हिंदू जातियों का उच्च या निम्न अथवा स्पर्शय या अस्पृश्य जातियों के रूप में कोई वर्गीकरण नहीं किया गया।

दूसरी बार आम जनगणना 1891 में हुई इस बार जनगणना आयुक्त ने देश की जनसंख्या को जाति, प्रजाति और उच्च या निम्न जाति के रूप में वर्गीकृत करने की कोशिश की किंतु यह एक प्रयास मात्र था।

तीसरी बार आम जनगणना 1901 में हुई इस बार जनगणना के लिए एक नया सिद्धांत अर्थात स्थानीय जनमत द्वारा स्वीकृत सामाजिक वरीयता के आधार पर वर्गीकरण का सिद्धांत अपनाया गया जिसका जनता ने तीव्र विरोध किया और जाति के बारे में पूछे गए प्रश्नों को निकाल देने पर बल दिया।

परंतु अंग्रेज जनगणना आयुक्त पर इस आपत्ति का कोई प्रभाव नहीं पड़ा जनगणना आयुक्त की दृष्टि में जाति के आधार पर उल्लेख किया जाना महत्वपूर्ण और आवश्यक था। जनगणना आयुक्त ने यह तर्क दिया कि सामाजिक संस्था के रूप में जाति के गुण दोष के बारे में चाहे कुछ भी कहा जाए परंत यह स्वीकार करना असंभव है की भारत में  जनसंख्या संबंधी समस्या पर कोई भी विचार विमर्श जिसमें जाति एक महत्वपूर्ण मुद्दा ना हो लाभप्रद हो सकता है। भारतीय समाज का ताना-बाना अभी जाति व्यवस्था पर आधारित है और भारतीय समाज की विभिन्न स्तरों में परिवर्तन का निर्धारण अभी भी जाति के आधार पर होता है। अंग्रेज जनगणना आयुक्त का मानना था की प्रत्येक हिंदू जाति में जन्म लेता है उसकी वह जाति ही उसके धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक और पारिवारिक जीवन का निर्धारण करती है। यह स्थिति मां की गोद से लेकर मृत्यु की गोद तक रहती है। पश्चिम देशों में समाज के विभिन्न स्तरों का निर्धारण चाहे वह आर्थिक हो, शैक्षिक हो या व्यवसायिक हो जिन प्रधान तत्वों के द्वारा होता है वह अदलते बदलते रहते हैं, वह उदार होते हैं और उनमें जन्म वंश की कसौटी को बदलने की प्रवृत्ति होती है। भारत में  आध्यात्मिक, सामाजिक, सामुदायिक तथा पैतृक व्यवसाय सबसे बड़े तत्व है जो अन्य तत्वों की अपेक्षा प्रधान तत्व होते हैं। इसलिए पश्चिम देशों में जहां जनगणना के समय आर्थिक अथवा व्यवसायिक वर्ग के आधार पर आंकड़े एकत्र किए जाते हैं वहां भारत में जनगणना के समय धर्म और जाति का ध्यान रखा जाता है राष्ट्रव्यापी और सामाजिक संस्था के रूप में जाति के बारे में कुछ भी क्यों ना कहा जाए उसकी उपेक्षा करने से कोई लाभ नहीं होगा और जब तक समाज में किसी व्यक्ति के अधिकार और उसके पद की पहचान जाति के आधार पर की जाती रहेगी तब तक यह नहीं कहा जा सकता कि हर 10 साल बाद होने वाली जनगणना से अवांछनीय संस्था के स्थाई होते जाने में सहायता मिलती है।

सन 1901 जनगणना के परिणाम स्वरुप अस्पृश्यों की कुल जनसंख्या के बारे में कोई सटीक आंकड़े नहीं निकल सके। इसके दो कारण थे पहला तो यह है कि इस जनगणना में कौन अस्पृश्य है और कौन नहीं इसे निश्चित करने के लिए कोई सटीक कसौटी नहीं अपनाई गई थी। दूसरे यह है कि जो जातियां आर्थिक और सामाजिक रुप से पिछड़ी हुई थीं और अस्पृश्य नहीं थीं उन्हें भी अस्पृश्यों की जनसंख्या के साथ मिला दिया गया।

सन 1911 की जनगणना में कुछ आगे काम हुआ जिसमें हिंदुओं को  तीन भागों में बांटा गया

हिंदू  


आदिवासी  


अस्पृश्य


अस्पृश्यों की गणना बाकी लोगों से अलग करने के लिए 10 मानदंड अपनाए गए इन मानदंडों के अनुसार जनसंख्या अधीक्षकों ने उन जातियों और कबीलों की अलग-अलग गणना की जो-

ब्राह्मणों की श्रेष्ठता को नहीं मानते


किसी ब्राह्मण या मान्यता प्राप्त हिंदू से गुरु दीक्षा नहीं लेते


जो मंदिरों में प्रवेश नहीं करते


बड़े-बड़े हिंदू देवी देवताओं की पूजा नहीं करते


जिनका कोई ब्राह्मण पुरोहित बिल्कुल भी नहीं होता


जो साधारण हिंदू मंदिरों के गर्भ स्थान में प्रवेश नहीं कर सकते


जिनसे छूत लगती है


जो अपने मुर्दों को दफनाते हैं


जो गौ मांस खाते हैं


जो गाय की पूजा नहीं करते

इन 10 मानदंडों में बिल्कुल स्पष्ट है की कर्म के आधार अर्थात चमड़े का काम करने वाला, कपड़ा बुनने, धोने या प्रेस करने वाला, सफाई कर्मी, माँस काटकर बेचने वाला आदि किसी को अस्पृश्य नहीं कहा गया बल्कि हिंदू धर्म से मुखालफत करने वाले लोगों को षड्यंत्रकारी तरीके से अंग्रेजों ने अस्पृश्य घोषित किया। इस आधार पर एक करोड़ 64 लाख 55 हजार 487 लोग अस्पृश्य जनगणना में पाए गए।

1911 की जनगणना से अस्पृश्यों की संख्या के निर्धारण की शुरुआत हुई 1921 और 1931 की जनगणना में भी इन हिदायतों के अनुपालन की कोशिश जारी रखी गई और प्रयास रहा की अधिक से अधिक हिंदुओं को अस्पृश्य घोषित किया जाए, जिसमें साइमन कमीशन जो 1930 में भारत आया था इन्हीं कोशिशों के परिणाम स्वरुप कुछ-कुछ निश्चयपूर्वक उसने बताया की ब्रिटिश भारत में अस्पृश्यों की जनसंख्या 4 करोड़ 45 लाख है।

आरक्षण द्वारा वर्गीकरण का षड्यंत्र

दुनिया में भारत के अतिरिक्त कोई ऐसा मुल्क नहीं है जहां जातीय आधार पर आरक्षण दिया जाता है आरक्षण व्यवस्था ब्रिटिश शासन में देश व समाज विभाजित करने की योजनाबद्ध साजिश थी।

1901 में महाराष्ट्र के सामंती रियासत कोल्हापुर के शासक छत्रपति शाहूजी महाराज द्वारा आरक्षण की शुरुआत मद्रास प्रेसिडेंसी के निर्देश पर की गई जिसमें 16% मुसलमान 16% ईसाई 60% हिंदू और 8% अछूतों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया, इसमें स्पष्ट किया गया की अछूत वह होंगे जो अंग्रेजों की मुलाजमियत करते हैं यानी उनके वेटर, बटलर, खानसामा, सफाई कर्मी, अस्तबलों की देखरेख करने वाले उनके सचिव, कर्मचारी, सैनिक आदि।

आरक्षण से 16% मुस्लिम समाज को अलग करने का अंग्रेजों का षड्यंत्र पूरा हुआ। 1907 में लखनऊ पैक्ट के माध्यम से मुसलमानों के लिए राजनीतिक आरक्षण का प्रावधान किया गया जिसमें 55% आरक्षण पंजाब, 45% आरक्षण बंगाल और 30% आरक्षण संयुक्त प्रांत में किया गया। परिणाम सामने है पंजाब जिसकी सीमाएं दिल्ली के नजफगढ़ से संपूर्ण पाकिस्तान तक और बंगाल जो संपूर्ण बांग्लादेश उसी में आता था को हमने पाकिस्तान बनते देखा।

1935 में ब्रिटिश भारत सरकार अधिनियम के अंतर्गत अनुसूचित जाति की सूची तैयार की गई जिसमें 429 जातियां सूचीबद्ध की गई 1947 में भारत विभाजित हुआ आबादी घटी परंतु 1950 में लागू भारतीय संविधान में अनुसूचित जातियों की संख्या बढ़ाकर 593 कर दी गई जो आज 2018 में 1231 हो चुकी है। वहीं अनुसूचित जनजातियां जिनकी संख्या 212 थी अब बढ़कर 437 हो चुकी है और पिछड़ी जातियां इनकी संख्या 1257 सूचीबद्ध की गई थी अभी 2297 है।

अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति व पिछड़ी जातियों के बढ़ते हुए पहाड़ को देख कर के यह कहना की जातियों में अस्पृश्यता या पिछड़ेपन के लिए धार्मिक व्यवस्था या कोई जाति जिम्मेवार है बिल्कुल गलत होगा इस पर गहन चर्चा चिंता की आवश्यकता है आने वाले समय में इस पर कार्य करने की जरूरत है।

संदर्भ- डॉ आंबेडकर संपूर्ण वाङ्गमय

शांत प्रकाश जाटव

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