६२ वर्ष इस देश पर राज करने के बाद भी दलित समाज को लुभाने के लिए इस प्रकार जन्मदिन के आयोजन ख़ुद-ब-ख़ुद पार्टी की कार्यशैली पर प्रश्नचिन्ह लगाती है। आज इतने वर्ष बाद भी सत्ता सँभालने के बावजूद एक विशेष वर्ग के साथ प्रेम दिखाना अपने आप ही इस वर्ग के प्रति आत्मग्लानी दर्शाती है जो बेहद चिंता जनक है। कियोंकी इस प्रकार के व्यवहार से दूसरा वर्ग विचलित हो जाता है और अपने आप को उपेक्श्चित महसूस करता है , कुछ अनैतिक विचारधारा वाली ताकतें भी पनपती हैं।
एक तरफ़ एक वर्ग दलित की बेटी प्रधानमंत्री न बननें देने के लिए सभी दूसरी पार्टियों को लाम बंध होने की दुहाई देकर दलित समाज को बरगलाने का प्रयास कर रहा है।
में यह पूछना चाहता हूँ की , क्या दलित का बेटा भारत का राष्ट्रपति नही बना, क्या चीफ जस्टिस दलित का बेटा नही बना, क्या लोक सभा स्पीकर दलित की बेटी नही बनी, क्या देश के विभिन्न सूबों मैं दलित मुख्यमंत्री नही बने।
मेहेरबानी करके समाज मैं द्वेष फैलाने की कुप्रथा पर अब विराम लगाओ।
दलित समाज के हितेषी के रूप मैं ख़ुद को आका कहने वाले क्षेत्रियेदल कुछ तो इस चुनाव मैं जमींदोज़ हो चुके हैं और कुछ की मानसिकता में परिवर्तन नहीं हुआ तो उनका भी परिणाम कुछ ऐसा ही होना तय है।
अ़ब दलित की पीठ पर सवार होकर राजनीति करने के दिन हवा होने चुके हैं, अब इस प्रकार की ओछी राजनैतिक सोच से बाहर निकल कर सोचने का समय आ गया है। कियोंकि आज जरूरत है देश के विकास की। यदि सच्चे मन से देश के विकास के बारे मैं सोचना और काम करना शुरू गया तो न केवल दलित बल्कि तमाम गरीब समाज का भला हो जायेगा।
और रही बात सामाजिक समरसता की मेरा दावा है की कम से कम राजनीति के माध्यम से तो कभी नहीं आ सकती। इसलिए मेरा विनम्र निवेदन है की राजनैतिक पार्टियाँ सामाजिक समरसता की बात करना बिलकुल छोड़ दें। वह बस यह चिंता करें की सम्पूर्ण देश मैं चाहे कोई भी समाज हो बुनियादी सुविधाएँ समाज के अंत मैं खड़े व्यक्ति तक पंहूच जाएँ।
अशिक्षा, मंहगाई, अपराध,खासतौर पर सरकारी अधिकारिओं द्वारा शोषण पर अंकुश लगे। पुराने बेक लॉग सख्ती से पूरे हों, समाज के आखिरी व्यक्ति तक योजना का लाभ पंहुचे।
यदि यह विचार एक बार सत्ताधारी पार्टियों ने बना लिया तो देखना सर्वसमाज आपको कंधे पर बैठयेगा रोज जन्मदिन मनायेगा.
नवभारत टाईम्स
एक तरफ़ एक वर्ग दलित की बेटी प्रधानमंत्री न बननें देने के लिए सभी दूसरी पार्टियों को लाम बंध होने की दुहाई देकर दलित समाज को बरगलाने का प्रयास कर रहा है।
में यह पूछना चाहता हूँ की , क्या दलित का बेटा भारत का राष्ट्रपति नही बना, क्या चीफ जस्टिस दलित का बेटा नही बना, क्या लोक सभा स्पीकर दलित की बेटी नही बनी, क्या देश के विभिन्न सूबों मैं दलित मुख्यमंत्री नही बने।
मेहेरबानी करके समाज मैं द्वेष फैलाने की कुप्रथा पर अब विराम लगाओ।
दलित समाज के हितेषी के रूप मैं ख़ुद को आका कहने वाले क्षेत्रियेदल कुछ तो इस चुनाव मैं जमींदोज़ हो चुके हैं और कुछ की मानसिकता में परिवर्तन नहीं हुआ तो उनका भी परिणाम कुछ ऐसा ही होना तय है।
अ़ब दलित की पीठ पर सवार होकर राजनीति करने के दिन हवा होने चुके हैं, अब इस प्रकार की ओछी राजनैतिक सोच से बाहर निकल कर सोचने का समय आ गया है। कियोंकि आज जरूरत है देश के विकास की। यदि सच्चे मन से देश के विकास के बारे मैं सोचना और काम करना शुरू गया तो न केवल दलित बल्कि तमाम गरीब समाज का भला हो जायेगा।
और रही बात सामाजिक समरसता की मेरा दावा है की कम से कम राजनीति के माध्यम से तो कभी नहीं आ सकती। इसलिए मेरा विनम्र निवेदन है की राजनैतिक पार्टियाँ सामाजिक समरसता की बात करना बिलकुल छोड़ दें। वह बस यह चिंता करें की सम्पूर्ण देश मैं चाहे कोई भी समाज हो बुनियादी सुविधाएँ समाज के अंत मैं खड़े व्यक्ति तक पंहूच जाएँ।
अशिक्षा, मंहगाई, अपराध,खासतौर पर सरकारी अधिकारिओं द्वारा शोषण पर अंकुश लगे। पुराने बेक लॉग सख्ती से पूरे हों, समाज के आखिरी व्यक्ति तक योजना का लाभ पंहुचे।
यदि यह विचार एक बार सत्ताधारी पार्टियों ने बना लिया तो देखना सर्वसमाज आपको कंधे पर बैठयेगा रोज जन्मदिन मनायेगा.
नवभारत टाईम्स
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