कुतुब मीनार भारत में दक्षिण दिल्ली शहर के महरौली भाग में स्थित, ईंट से बनी विश्व की सबसे ऊँची मीनार है। इसकी ऊँचाई ७२.५ मीटर (२३७.८६ फीट) और व्यास १४.३ मीटर है, जो ऊपर जाकर शिखर पर २.७५ मीटर (९.०२ फीट) हो जाता है। क़ुतुबमीनार मूल रूप से सात मंजिल का था लेकिन अब यह पाँच मंजिल का ही रह गया है।[१] इसमें ३७९ सीढियाँ हैं।[२] मीनार के चारों ओर बने आहाते में भारतीय कला के कई उत्कृष्ट नमूने हैं, जिनमें से अनेक इसके निर्माण काल सन ११९३ या पूर्व के हैं। यह परिसर युनेस्को द्वारा विश्व धरोहर के रूप में स्वीकृत किया गया है।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अनुसार, इसके निर्माण पूर्व यहाँ सुन्दर २० जैन मन्दिर बने थे। उन्हें ध्वस्त करके उसी सामग्री से वर्तमान इमारतें बनीं। अफ़गानिस्तान में स्थित, जाम की मीनार से प्रेरित एवं उससे आगे निकलने की इच्छा से, दिल्ली के प्रथम मुस्लिम शासक कुतुबुद्दीन ऐबक, ने कुतुब मीनार का निर्माण सन ११९३ में आरम्भ करवाया, परन्तु केवल इसका आधार ही बनवा पाया। उसके उत्तराधिकारी इल्तुतमिश ने इसमें तीन मंजिलों को बढ़ाया, और सन १३६८ में फीरोजशाह तुगलक ने पाँचवीं और अन्तिम मंजिल बनवाई। ऐबक से तुगलक तक स्थापत्य एवं वास्तु शैली में बदलाव, यहाँ स्पष्ट देखा जा सकता है। मीनार को लाल बलुआ पत्थर से बनाया गया है, जिस पर कुरान की आयतों की एवं फूल बेलों की महीन नक्काशी की गई है। कुतुब मीनार पुरातन दिल्ली शहर, ढिल्लिका के प्राचीन किले लालकोट के अवशेषों पर बनी है। ढिल्लिका अन्तिम हिन्दू राजाओं तोमर और चौहान की राजधानी थी।
तोड़े गये हिन्दू व जैन मंदिर अवशेषों से बनी कुव्वतुल-इस्लाम मस्जिद।
इस मीनार के निर्माण उद्देश्य के बारे में कहा जाता है कि यह कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद से अजान देने, निरीक्षण एवं सुरक्षा करने या इस्लाम की दिल्ली पर विजय के प्रतीक रूप में बनी। इसके नाम के विषय में भी विवाद हैं। कुछ पुरातत्व शास्त्रियों का मत है कि इसका नाम प्रथम तुर्की सुल्तान कुतुबुद्दीन एबक के नाम पर पडा, वहीं कुछ यह मानते हैं कि इसका नाम बग़दाद के प्रसिद्ध सन्त कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी के नाम पर है, जो भारत में वास करने आये थे। इल्तुतमिश उनका बहुत आदर करता था, इसलिये कुतुब मीनार को यह नाम दिया गया। इसके शिलालेख के अनुसार, इसकी मरम्मत तो फ़िरोज शाह तुगलक ने (१३५१–८८) और सिकंदर लोधी ने (१४८९–१५१७) करवाई। मेजर आर.स्मिथ ने इसका जीर्णोद्धार १८२९ में करवाया था।[३]
लौह स्तंभ
लौह स्तंभ क़ुतुब मीनार के निकट (दिल्ली में) धातु विज्ञान की एक जिज्ञासा है| यह कथित रूप से राजा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य (राज ३७५ - ४१३) से निर्माण कराया गया, किंतु कुछ विशेषिज्ञों का मानना है कि इसके पहले निर्माण किया गया, संभवतः ९१२ ईपू में| स्तंभ की उँचाई लगभग सात मीटर है और पहले हिंदू व जैन मंदिर का एक हिस्सा था| तेरहवी सदी में कुतुबुद्दीन ऐबक ने मंदिर को नष्ट करके क़ुतुब मीनार की स्थापना की| लौह-स्तम्भ में लोहे की मात्रा करीब ९८% है और अभी तक जंग नहीं लगा है.
लौह स्तंभ पर लिखित चिह्न
पृथ्वी राज चौहान महाभारत काल की वंशावली में आखिरी हिंदू राजा था। मोहम्मद गोरी ने छल से उसे सन् 1192 ई में हराया। (उस से पहले वही मोहम्मद गोरी 16 बार हारा) उसे अंधा कर के अपनी राजधानी ले गया। जहां उसके भाट चंद्रबरदाई ने एक तरकीब से अंधे पृथ्वी राज के हाथों मोहम्मद गोरी को उसे शब्द भेदी बाण से मरवा दिया। कहते है दो का जन्म और मरण दिन एक ही था। क्योंकि उसने खुद पृथ्वी राज को मार कर खुद को भी मार डाला।
क्या हो गया था इस बीच भारतीय शासन काल में जिसे मोहम्मद गज़नवी की हिम्मत नहीं हुई की दिल्ली की तरफ मुंह कर सके। उसे मोहम्मद गोरी जैसे अदना से शासक ने हरा दिया। इसकी तह में कोई राज तो होगा। पहला तो छल था, दूसरा उस समय के जो 52 गढ़ थे वो सभी राजा आपस में भंयकर युद्धों में लिप्त थे। इनमें भी मोह बे के चार भाई आल्हा, उदूल, धॉदू और एक चचेरा भाई मल खान ने शादी जैसी परम्परा को मान अपमान का कारण बना कर युद्ध करते रहे। आज भी बुंदेल खँड़ में बरसात के दो महीनों में वहाँ पर आल्हा गाई जाती है, उन दिनों हत्या और खून की वारदातें दोगुनी हो जाती है। बड़ी अजीब बात है, पृथ्वी राज चौहान की आखरी लड़ाई मोहम्मद गोरी से पहले इन्हीं आल्हा उदल से हुई थी। आल्हा का लड़का इंदल पृथ्वी राज चौहान की लड़की से शादी करने के लिए आ गए। उन का एक भाई तो पहले से ही धादु जो पृथ्वी राज चौहान के यहां नौकर था वो अपने भाईयों से नाराज हो कर आ गया। युद्ध में बरात के साथ दुल्हा भी मारा गया। और पृथ्वी राज चौहान की लड़की बेला वहाँ पर सती हुई। उस समय दिल्ली को पथोरागढ़ के नाम से जानते थे। इन्हीं अंदरूनी लडाईयों ने हिंदू राजाओं को कमजोर कर दिया। शादी के लिए इतनी हिंसा....आज भी आप जो बरात देखते है। वो क्या है एक फौज है और दुल्हा घोड़े पर बैठ कर तलवार ले कर चलता है। बड़ी अजीब सी रित-रिवाज है। नहीं ये वही लड़ाई की परम्परा को दोहरा रहे है। आज भी राजस्थान, हरियाणा,पंजाब, मध्य प्रदेश, और यू पी के बहुत से हिस्सों में आप बारात में जब जाकर देखेंगे की जब शादी के फेरे हो रहे होते है। वहां के लोक गीतों में लड़कियां और औरतें दुल्हे को कोसती है।
महाभारत के 4000 हजार साल तक जो हिन्दू साम्राज्य रहा कमाल है। उसने दिल्ली में कोई महल परकोटा शिकार गाह, आदी कुछ नहीं बनवाए। आज जीतने भी ऐतिहासिक स्मारक दिल्ली में देखेंगे वो सब मुगल कालिन या गुलामवंश के बनवाए हुए है। और सभी में मजार कब्रगाह की मात्रा अधिक है। इतिहास के साथ न्याय नहीं हुआ
कुतुब मीनार को कुतुबुद्दीन ऐबक ने बनवाया था। कोन था कुतुबुद्दीन ऐबक, मोहम्मद गोरी का मात्र एक दास। एक दास ने कुतुब की मीनार बना दी जिसका शासन काल महज कितना था। 1193-1206 ई और उस के पास जो ‘’अलाई मीनार’’ है, जो 1290-1320 यानि खिल जी वंश के बेहतरीन युग में बनने लगी और उसे खील जी कुतुब की मीनार से दो गुणा बड़ा बनाना चाहते थे। 30 साल के शासन काल में पहली ही मंजिल का ढांचा तैयार हो सका। क्या कारण है एक मीनार जो उन्ही के पूर्व उतराधिकारी ने बनाई उसी को कम करने के लिए उस से दो गुण बड़ा बनाया जा रहा है। कुछ इतिहासकार कहते है कुतुबुद्दीन ऐबक ने तीन मंजिल बनवाई,बाद की दो मंजिल इल्तुतमिश ने और बाद में सन् 1368 ई में फिरोज शाह तूगलक ने पांचवी मंजिल बनवाई यानि कुल मिला कर 175 वर्ष लगे कुतुबुद्दीन के ख्वाब को पूरा होने में वो भी तीन वंश ने मिल कर ये काम किया। कुछ इतिहासकार तो यहाँ तक कहते है कि इस का नाम बगदाद के कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी के नाम से इस मीनार का नाम रखा गया है। कुतुब मीनार जिस लाल पत्थर से बनी है और जिस पर आयतें लिखी है उन के रंग में भी भेद है। जो सपाट लाल पत्थर लगा है, वो एकदम लाली लिए है। और जिस पर आयतें लिखी गई है वो बदरंग लाल है। और उन आयतों को उस के उपर लगया गया है जिससे वो मीनार बहार की तरफ उभरी है। अगर एक साथ लगया गया होता उसके संग मिला कर लगाया जाता। आप बिना किसी विचार और धारणा के केवल कुतुब को देखें तो वो आयतें उस की खूबसूरती को बदरंग कर रही है। चिकना धरातल मन को शांत और गहरे उतरनें लग जाता हे। मीनार ध्यान के लिए बनी थी। अलग-अलग चक्र पर पहुंचे साधक अलग-अलग मंजिल पर बैठ कर ध्यान करते होगें। क्योंकि जिन लोग न ध्यान करने के लिए कुतुब मीनार को बनवाया होगा वह इस रहस्य को जरूर जानते होगें। वो ये भी जरूर जानते थे पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण हमारी उर्जा को अपनी और खींचता है। इसी लिए उचे पहाड़ों पर जा कर लोग मंदिर बनाते है। आप जितना गुरूत्व केन्द्र से उपर जाओगे पृथ्वी को खिचाव कम होने लग जात है। कुतुब की लाट अध्यात्म की चरम अवस्था पर पहुँचे साधकों की आने वाली पीढी को महानतम देन है। जिसे इतिहास के गलियारों नें भूल भुलैया बना कर रख दिया। महान राज भोज ने ही तंत्र की साधना में लीन उन एक लाख साधकों को मरवा दिया था वो महान राजा भी जब ध्यान के रहस्यों से इतना अंजान था जिससे एक विज्ञान जो खोजा गया था पृथ्वी से लगभग खत्म हो गया।
कुतुब मीनार की आज पाँच मंज़िले है उन की ऊँचाई 72.5 मीटर है,और सीढ़ियां 379 है। कुतुब मीनार की सात मंज़िले थी। यानि उस की उँचाई पूरी 100 मीटर, मानव शरीर के अनुरूप उसकी मंज़िलों का विभाजन किया गया था। मानव शरीर को सात चक्रों में विभाजित किया गया है। उसी अनुपात को यानि मानव ढांचे को सामने रख कर उस की सात मंज़िले बनवाई गई थीं। पहले तीन चक्र अध्यात्मिक जगत के कम और संसारी जगत के अधिक होते है। इस लिए मानव उन्हीं में जीता है और लगभग उन्हीं में बार-बार मर जाता है। मूलाधार, स्वादिष्ठता, मणिपूर ये तीन चक्र इसके बाद अनाहत, विशुद्ध दो अध्यात्म का रहस्य और आंदन है। फिर आज्ञा चक्र और सहस्त्र सार अति है। इस लिए सात हिन्दूओ की बड़ी बेबुझीसी रहस्य मय पहली है। सात रंग है। सात सुर है। प्रत्येक सुर एक-एक चक्र की धवनि को इंगित करता है। जैसे सा...मूलाधार रे....स्वादिष्ठता....इसी तरह रंग भी सा के लिए काला......रे के लिए कबूतरी......। हिन्दू शादी जैसे अनुष्ठान के समय वर बधू के फेरे भी सात ही लगवाते है।
कुतुब मीनार एक अध्यात्मिक केंद्र था। जिसे बुद्धों ने विकसित किया था। इस का लोह स्तंभ भी गुप्त काल से भी प्रचीन है। इस के शिलालेख भी मिले है। शायद चंद्र गुप्त के काल से भी प्राचीन। आज भी वहाँ भग्नावशेष अवस्था में कला के बेजोड़ नमूनों के अवशेष देखे जा सकते है। जो कला की दृष्टि में अजन्ता कोणार्क और खजुराहो से कम नहीं आँकें जा सकते उन स्तम्भों में उन आकृतियों के चेहरे को बडी बेदर्दी से तोड़ा दिए गये है। खूब सुरत खंबों में घंटियों की नक्काशी जो किसी मुसलिम को कभी नहीं भाती एक चित्र में गाय अपने बछड़े को दुध पीला रही है। शिव पर्वती, नटराज, भगवान बुद्ध और अनेक खजुराहो की ही तरह भगना वेश अवस्था में। अजंता या खजुराहो की मूर्तियां तो मिटटी से ढक दी गई थी वहां किसी मुस्लिम शासक की पहुच नहीं हुई अजंता के तो उस स्थान को दर्शनीय बना दिया जहां से एक अंग्रेज आफिसर ने पहली बार खड़े होकर उन गुफाओं को देखा था। आज नहीं कल हमें उन्हें फिर से जनता के लिए बंद करना पड़ेगा। वो कोई देखने की वस्तु नहीं है वह तो पीने के केन्द्र है। वहां तो ध्यान के सागर हिलोरे मारते है। जो उस में तैरना जानते है वहीं उस का आनंद उठा सकते है। बाकी लोगों के कौतूहल की वस्तु भर है। यहाँवहाँ अपना नाम लिख कर थोड़ा शोर मचा कर वापस आ जाएँगे। सच ये स्थान देखने के काम के लिए नहीं बनाए गये थे।
कुल मिला कर कुतुब मीनार कोई किला या महल या कोई दिखावे की वस्तु नहीं थी। वो तो अध्यात्म के रहस्यों को जानने के लिए एक केन्द्र था। जहां पर हजारों साधक ध्यान करते थे। क्योंकि पास ही ढ़िल्लिका (दिल्ली) प्रचीन तोमर वंश और चौहान की राजधानी थी। उसे आज भी लाल कोटा के नाम से जानते थे।
bahut achcha hai sir .kya main ise apne news paper me use kar sakta hun
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