कुछ समय पहले की बात है, जब अमेरिका के प्रिंस्टन विश्वविद्यालय और भारत के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ दलित स्टडीज के तत्वावधान में एक अलग किस्म का अध्ययन किया गया था।
अमेरिका में अश्वेतों और अन्य अल्पसंख्यक तबकों के साथ होने वाले भेदभाव को नापने के लिए बनाई गई तकनीक का इस्तेमाल करते हुए प्रस्तुत अध्ययन में लगभग पांच हजार आवेदन पत्र भारत की अग्रणी कंपनियों को 548 विभिन्न पदों के लिए भेजे गए।
योग्यताएं एक होने के बावजूद इसके तहत कुछ आवेदन पत्रों के आवेदकों के नाम से यह स्पष्ट हो रहा था कि वह दलित समुदायों से संबधित हैं।
कंपनी की तरफ से ज्यादातर उन्हीं प्रत्याशियों के मामलों में वापस संपर्क किया गया, जिनके नाम उच्च वर्णीय तबके से आते प्रतीत होते थे।
दलित सदृश्य नामों वाले प्रत्याशी नौकरी की पहली ही सीढ़ी पर छांट दिए गए थे। भारत के प्रतिष्ठित इकोनॉमिक एंड पोलिटिकल वीकली नामक जर्नल में इस अध्ययन का समूचा विवरण प्रकाशित भी हुआ था।
इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि सामाजिक तौर पर उत्पीडि़त-वंचित रहे तबकों को अपने यहां तैनात करने हेतु आरक्षण जैसी किसी प्रणाली को लागू करने के केंद्र सरकार के प्रस्ताव को खारिज करते हुए मेरिट की वरीयता की बात करने वाले कारपोरेट क्षेत्र को बेपर्द करने वाले प्रस्तुत अध्ययन के निष्कर्षो पर कभी चर्चा नहीं हुई। बात आई-गई हो गई।
मगर अब जबकि यह सवाल नए सिरे से नमूदार हुआ है, हमें इस पर बात करने की जरूरत है।
पिछले दिनों उद्योगपतियों के तीन प्रमुख संगठनों सीआईआई, फिक्की और एसोचेम के अध्यक्षों ने प्रधानमंत्री कार्यालय को यह सूचित किया कि वे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से आने वाले लोगों के लिए पांच फीसदी नौकरियां अपने यहां आरक्षित नहीं कर सकते।
पिछले दिनों प्रधानमंत्री के प्रमुख सचिव जनाब टीकेए नायर ने इन संगठनों के प्रमुखों की बैठक अपने यहां बुलाई थी और यह जानना चाहा था कि क्या वे अपने सदस्यों को इस बात के लिए राजी करेंगे कि वे वंचित तबकों को आरक्षण दें?इसके जवाब में उनकी तरफ से यह कहा गया।
बता दें कि यह मसला अचानक नहीं उभरा है। कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के घोषणापत्र में भी निजी क्षेत्र में आरक्षण के मसले का विशेष उल्लेख किया गया था। संप्रग सरकार के प्रथम संस्करण में जिन दिनों मीरा कुमार समाज कल्याण महकमे की मंत्री थीं, तब उसे लेकर काफी सरगर्मियां चली थीं, मगर उन दिनों भी कारपोरेट जगत के सम्राटों का यही तर्क होता था कि इससे कार्यक्षमता की हानि होती है।
सवाल उठता है कि आखिर कार्यक्षमता की बात कहां तक सही है? क्या वंचित, उत्पीडि़त तबके से आने वाले लोगों को रोजगार में वरीयता देने से, अपने यहां के कर्मचारी और कामगार वर्ग की संरचना को अधिकाधिक विविधतापूर्ण करने से, उसमें विभिन्न नस्लों, समुदायों, तबकों को शामिल करने से कार्यक्षमता पर नकारात्मक असर पड़ता है या सकारात्मक।
हम इसे अमेरिका के अपने अनुभव की चर्चा करके समझ सकते हैं। मालूम रहे कि अमेरिका में पचास के दशक के अंत में और साठ के दशक की शुरुआत में नागरिक अधिकारों के लिए चले आंदोलन के बाद अमेरिकी सरकार को ऐसी नीति बनाने के लिए मजबूर होना पड़ा कि अश्वेतों का अनुपात शिक्षा संस्थानों से लेकर रोजगार के विभिन्न इरादों ही नहीं, बल्कि बिजनेस लीडर्स की फेहरिस्त में बढ़े। श्वेतों के वर्चस्व वाली पहले से चली आ रही नीतियों के बरअक्स इन नीतियों को सकारात्मक नीतियां कहा गया, जिसके तहत उद्योगपतियों को इस बात के लिए प्रोत्साहित किया गया कि वे अपने यहां इन तबकों को स्थान दें।
भारत में वंचित-उत्पीडि़त तबकों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय को दूर करने के लिए उनके लिए स्थानों का निश्चित प्रतिशत सुरक्षित करने की जो प्रणाली कायम की गई, उससे यह प्रणाली थोड़ी अलग किस्म की थी। किसी भी संस्थान में अगर विविधता का सूचकांक (डाइवर्सिटी इंडेक्स) अच्छा है यानी विभिन्न तबकों को ठीक स्थान दिया गया है तो उपरोक्त संस्थान सरकार की तरफ से विशेष छूटों, सुविधाओं का लाभ उठा सकता था, इसके बरअक्स किसी संस्थान में अगर विविधता सूचकांक मनमाफिक नहीं है तो अपने आप ऐसी सुविधाओं, छूटों में कटौती होती थी।
ध्यान रहे कि वर्ष 1964 में कायम हुई इन नीतियों ने अमेरिकी उद्योगों की सामाजिक संरचना को विविधतापूर्ण बनाने में अहम भूमिका अदा की। निश्चित ही यह गलतफहमी नहीं पाल लेनी चाहिए कि इसके चलते अश्वेतों के साथ चलने वाला भेदभाव पूरी तरह से खत्म हो गया।
इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में जब बुश राष्ट्रपति थे, तब इस नीति को एक जबरदस्त चुनौती मिली। मिशिगन विश्वविद्यालय के दो छात्रों ने सुप्रीम कोर्ट में यह याचिका दायर की कि एफर्मेटिव एक्शन की इन नीतियों के कारण उनके साथ भेदभाव हुआ है और उन्हें प्रवेश नहीं मिल सका है। यह एक अजीब संयोग था कि छात्रों की इस याचिका ने अमेरिकी समाज को लगभग दो हिस्सों में बांट दिया और याचिका के पक्ष और विपक्ष में तमाम लोग खड़े हुए। सबसे दिलचस्प था याचिका के विरोध में व एफर्मेटिव एक्शन की नीतियों के समर्थन में अमेरिका की तमाम अग्रणी कंपनियों का उतरना, जिनमें से कई फारच्यून और फोर्ब्स की सूची में भी शामिल थीं।
न्यायाधीश सांद्रा ओकोनोर की अगुआई में पांच सदस्यीय पीठ ने विविधता के पक्ष में निर्णय दिया और साफ कहा कि नस्लीय विविधता न केवल सीखने की प्रक्रियाओं के लिए आवश्यक है, बल्कि इस बात के लिए भी जरूरी है कि विश्वविद्यालय समाज में नेतृत्वकारी स्थितियों तक पहुंचने की पहली सीढ़ी होते हैं।
इस तरह अदालत ने एक ऐसे एफर्मेटिव एक्शन कार्यक्रम की हिमायत की, जिससे अफ्रीकी अमेरिकी, हिस्पानिक और नेटिव अमेरिकियों को वरीयता मिल रही थी। प्रस्तुत फैसले का विश्लेषण करते हुए यही बात प्रखरता से सामने आई कि अमेरिकी पूंजीपति वर्ग और अन्य अभिजात तबकों ने इस बात को शिद्दत से महसूस किया था कि बिना ऐसी नीति के भूमंडलीकरण के युग में हम पार नहीं पा सकते हैं।
न्यूयॉर्क टाइम्स में लिखे अपने आलेख में लिंडा ग्रीनहाउस ने साफ कहा फारच्यून 500 कंपनियों, वरिष्ठ फौजी अधिकारी और कालेजों एवं विश्वविद्यालयों, भले ही छोटे हों या बड़ें हो, सार्वजनिक हों या निजी, जो समर्थन दिया था, उसकी वजह से ही मिशिगन की जीत हो सकी। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के चेयरपर्सन प्रोफेसर सुखदेव थोराट ने इकोनॉमिक एंड पोलिटिकल वीकली के अपने एक आलेख में रिजर्वेशन एंड इफीशियंसी: मिथ एंड रियलिटी की अर्थशास्त्र के नव-क्लासिकीय संदर्भो के जरिए भी समझने की कोशिश की है।
उनके मुताबिक एक तरफ उदारीकरण, निजीकरण की नीतियों की हिमायत में कारपोरेट क्षेत्र नव-क्लासिकीय आर्थिक प्रतिमानों को कबूल करता है, वहीं दूसरी तरफ उन्हीं प्रतिमानों के अंतर्गत जिन भेदभाव विरोधी नीतियों की बात कही जाती है, उन्हें वह खारिज करता है।
उनके मुताबिक इस विरोधाभास को समझने की जरूरत है।
वे कहते हैं, आम भेदभाव के संदर्भ में तथा जातिगत विशिष्टता से उत्पन्न भेदभाव को लेकर स्टैंडर्ड नव-क्लासिकीय सिद्धांत यही बताते हैं कि लेबर मार्केट में मौजूद भेदभाव श्रम के आवंटन में जबरदस्त अकार्यक्षमता को जन्म देता है, प्रतियोगिता को कम करता है और आर्थिक बढ़ोतरी को प्रभावित करता है। नव-क्लासिकीय सिद्धांत दरअसल रिजर्वेशन-एफर्मेटिव एक्शन जैसी भेदभाव विरोधी नीतियों को लागू करने की तथा बाजार में अन्य किस्म के हस्तक्षेप की हिमायत करते हैं, जिनका इस्तेमाल विकास को बढ़ावा देने व भेदभाव का शिकार समूहों तक नौकरियों को सुगम करने के लिए किया जा सकता है।
उम्मीद की जानी चाहिए कि उद्योगजगत के सम्राट अपनी पुरानी पड़ चुकी मान्यताओं पर पुनर्विचार करेंगे और कारपोरेट क्षेत्र को अधिक समावेशी बनाने की दिशा में कदम बढ़ाएंगे।
(लेखक सुभाष गाताडे वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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